Wednesday, March 10, 2010

चौदह साल लंबी सुरंग के मुहाने पर रोशनी


महिला आरक्षण विधेयक को 186 सदस्यों के भारी समर्थन से पारित करके हमारी संसद के ऊपरी सदन ने मंगलवार 9 मार्च 2010 को ऐतिहासिक तारीख बना दिया। 1996 में प्रस्तावित इस विधेयक की 14 साल लंबी सुरंग के मुहाने पर पहली बार कुछ रोशनी दिखाई दी है। महत्वपूर्ण सिर्फ यह नहीं कि विधेयक को राज्यसभा ने पारित कर दिया, महत्वपूर्ण यह भी है कि इसके विरोध में काफी समय से कायम घेराबंदी टूटी है और सदन ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकार के पक्ष में राष्ट्रीय भावना को स्वीकार व व्यक्त किया है। इसके लिए राज्यसभा सदस्य और दल धन्यवाद व बधाई के हकदार हैं।




अगर एक दिन पहले सदन में विधेयक को रोकने की गरज से मर्यादा का उल्लंघन करने वाले सात सदस्यों के निलंबन और विरोधी सदस्यों की गैरमौजूदगी के बगैर विधेयक को पारित किया जा पाता तो ज्यादा अच्छा होता, लेकिन इसके लिए विधेयक के विरोध में खड़े दल और उनकी हठधर्मिता ही जिम्मेदार है। लालू यादव ने इसे राज्यसभा में तानाशाही की शुरुआत बताया है। सवाल यह है कि सदन में अशोभनीय तरीके अपनाने वाले सदस्यों का निलंबन तानाशाही है या एक-चौथाई सदस्यों द्वारा तीन-चौथाई सदस्यों की आवाज को अलोकतांत्रिक हंगामे के बल पर बंधक बना लेना तानाशाही है?




विधेयक के विरोधी तैंतीस फीसदी आरक्षण के भीतर पिछड़े और मुस्लिम समुदायों के लिए आरक्षण की मांग कर रहे थे। पिछड़े वर्ग के पुरुषों के लिए हमारे विधानमंडलों में आरक्षण का प्रावधान नहीं है तो फिर पिछड़े वर्गो की महिलाओं के लिए क्यों? मुस्लिम समुदाय के लिए भी न सिर्फ आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, बल्कि न्यायिक फैसला भी है कि धर्म के आधार पर आरक्षण संविधान-विरोधी है। ऐसे में इस मांग को इस विधेयक को नाकाम करने की चालाकी मात्र क्यों न माना जाए?




अब इस विधेयक को लोकसभा में पारित होना होगा। आश्चर्य नहीं कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के सदन लोकसभा में इसे राज्यसभा से भी ज्यादा राजनीतिक अवरोधों से गुजरना पड़े। राष्ट्रपति के दस्तखत होने से पहले और बाद में इसे न्यायिक चुनौतियों को भी पार करना पड़ सकता है। केंद्र सरकार और विधेयक के समर्थक दलों को इस विधेयक के लागू होने तक इसी तरह गहरे संकल्प और राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। यह ऐतिहासिक भूमिका होगी, जिसके लिए देश की आधी आबादी बहुत उम्मीदों से उनकी ओर देख रही है।

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तस्वीरों में हम,कुछ तो यादें है


महिला आरक्षण विधेयक को 186 सदस्यों के भारी समर्थन से पारित करके हमारी संसद के ऊपरी सदन ने मंगलवार 9 मार्च 2010 को ऐतिहासिक तारीख बना दिया। 1996 में प्रस्तावित इस विधेयक की 14 साल लंबी सुरंग के मुहाने पर पहली बार कुछ रोशनी दिखाई दी है। महत्वपूर्ण सिर्फ यह नहीं कि विधेयक को राज्यसभा ने पारित कर दिया, महत्वपूर्ण यह भी है कि इसके विरोध में काफी समय से कायम घेराबंदी टूटी है और सदन ने महिलाओं के राजनीतिक अधिकार के पक्ष में राष्ट्रीय भावना को स्वीकार व व्यक्त किया है। इसके लिए राज्यसभा सदस्य और दल धन्यवाद व बधाई के हकदार हैं।




अगर एक दिन पहले सदन में विधेयक को रोकने की गरज से मर्यादा का उल्लंघन करने वाले सात सदस्यों के निलंबन और विरोधी सदस्यों की गैरमौजूदगी के बगैर विधेयक को पारित किया जा पाता तो ज्यादा अच्छा होता, लेकिन इसके लिए विधेयक के विरोध में खड़े दल और उनकी हठधर्मिता ही जिम्मेदार है। लालू यादव ने इसे राज्यसभा में तानाशाही की शुरुआत बताया है। सवाल यह है कि सदन में अशोभनीय तरीके अपनाने वाले सदस्यों का निलंबन तानाशाही है या एक-चौथाई सदस्यों द्वारा तीन-चौथाई सदस्यों की आवाज को अलोकतांत्रिक हंगामे के बल पर बंधक बना लेना तानाशाही है?




विधेयक के विरोधी तैंतीस फीसदी आरक्षण के भीतर पिछड़े और मुस्लिम समुदायों के लिए आरक्षण की मांग कर रहे थे। पिछड़े वर्ग के पुरुषों के लिए हमारे विधानमंडलों में आरक्षण का प्रावधान नहीं है तो फिर पिछड़े वर्गो की महिलाओं के लिए क्यों? मुस्लिम समुदाय के लिए भी न सिर्फ आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, बल्कि न्यायिक फैसला भी है कि धर्म के आधार पर आरक्षण संविधान-विरोधी है। ऐसे में इस मांग को इस विधेयक को नाकाम करने की चालाकी मात्र क्यों न माना जाए?




अब इस विधेयक को लोकसभा में पारित होना होगा। आश्चर्य नहीं कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के सदन लोकसभा में इसे राज्यसभा से भी ज्यादा राजनीतिक अवरोधों से गुजरना पड़े। राष्ट्रपति के दस्तखत होने से पहले और बाद में इसे न्यायिक चुनौतियों को भी पार करना पड़ सकता है। केंद्र सरकार और विधेयक के समर्थक दलों को इस विधेयक के लागू होने तक इसी तरह गहरे संकल्प और राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। यह ऐतिहासिक भूमिका होगी, जिसके लिए देश की आधी आबादी बहुत उम्मीदों से उनकी ओर देख रही है।

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